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कविता

वनराज

डी.एच. लॉरेंस


सर्दियों और जनवरी की बरसती बर्फ में
बहते पानी के गहरे दर्रे स्याह
घने सनोवर के वृक्ष, नीली गुलमेहँदी
तरल जल की कल-कल, छल-छल
और दूर तक पसरा नागरमोथे का जाल

***

वहाँ हैं इनसान... दो इनसान
इनसान - दुनिया का सबसे भयावह प्राणी!
वे झिझकते हैं बंदूक रखकर भी
पर, हमारे पास तो कुछ भी नहीं!
सबके कदम बढ़ते हैं आगे की ओर
निकलते हैं दो मेक्सिकी अजनबी
घनघोर घनी घाटी से बाहर
अँधेरा... बर्फ और एकाकीपन
गुम होती पगडंडियों पर
क्या कर रहे हैं वे दोनों ?

***

काँधे पर लदी पीली सी गठरी
आखिर क्या है - हिरण!
मूर्खतापूर्ण हँसी से झेंपते हैं वे
जैसे पकड़ी गई हो कोई गलती
और हम भी मुस्कुराते है, उसी तरह
मानो अनजान हों उस दुखांतिका से
क्या सभ्य है वह गहरे चेहरे का इनसान!
और बेबस है हम - वनराज!

***

ओह वनराज...!
पीतवर्णी पर निर्जीव, प्राणहीन
तिरस्कार भरी हँसी से बोला वह
मारा है मैंने इसे आज सुबह
गोल, सुंदर माथा, निष्प्राण कर्ण
काली दमकती धारियाँ
सर्द चेहरा और आँखें बेजान
इनसान - अधिकारी है खुलेपन का
और हम सिमटे घाटी के धुँधलके में

***

यहाँ ऊपर किसी वृक्ष की शाख पर
मिलते हैं कुछ केश गुच्छ
भर आता है मन, आँखें होती हैं नम
गहरा सुराख है नारंगी चट्टान की छाती पर
बिखरी हड्डियाँ, शाखें और फैलती गंध
अब उस राह नहीं जाएँगे कभी वे लोग
क्योंकि यहाँ नहीं गरजेगा वनराज
न होगा कुहासे सा चेहरा और...
न होगी उसकी निहार, चमकीली धारियाँ
नारंगी चट्टानों से बनी घाटी के पेड़ों से
निकालकर अपना चेहरा मुहाने पर
नहीं होगा वह वनराज

***

पर मैं देखता हूँ दूर... दूर... और दूर
रेगिस्तान के क्षितिज का वह धुँधलका
एक स्वप्नमयी मृगमरीचिका
बर्फ जमी पहाड़ी पर, हरे स्थितिप्रज्ञ
क्रिसमस वृक्ष की तरह खड़ा मैं
सोचता हूँ कि इस एकाकी दुनिया में
जगह थी मेरे और वनराज के लिए भी

***

पर... उस पार की दुनिया में
कितनी आसानी से बसने देते हैं हम
इनसानों की अनगिनत बस्तियाँ अनथक
फिर भी कितना अंतर है इन दोनों दुनियाओं में
इनसानों को हम नहीं खोते कभी पर
वनराज को क्यों खो देता है इनसान!


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